11 February, 2010

तुलना क्योँ?

तुलना क्योँ करनीँ पडती है, इसकी आवश्यकता क्या है, क्या इसके परिणाम सदैव सकारात्मक ही होते हैँ और क्या यह सदैव अपने उद्देश्य मेँ सफल रहती है?
यह वो मूलभूत प्रश्न हैँ जिन पर हम शायद ही कभी विचार करते हैँ लेकिन तुलना पल प्रति पल करते जाते हैँ। स्वयँ की किसी अन्य से तुलना, अपने बच्चोँ की आपस मेँ या किसी अन्य के बच्चोँ से तुलना, परिवारोँ-समुदायोँ-संस्क्रतियोँ-समाजोँ-राष्ट्रोँ की तुलना, शहरोँ-राज्योँ-कम्पनियोँ-ब्राँडोँ की तुलना, स्कूलोँ-कालेजोँ-विषयोँ-टीचरोँ की तुलना.... आदि आदि।
वास्तव मेँ तुलना के विषयस्रोत व क्षेत्र अनन्त हैँ परन्तु "लछ्य, उद्देश्य केवल एक है और वो है - सुधार का।"
"दूसरोँ की सफलता से सीख लो और असफलता से सबक ॥"
लेकिन क्या वास्तव मेँ सदैव ऐसा ही होता है!!

3 comments:

संगीता पुरी said...

मेरे विचार से हर व्‍यक्ति में अलग अलग तरह की ऊर्जा है .. किसी से भी किसी की तुलना नहीं की जा सकती .. बस उसके गुणों और अवगुणों का सकारात्‍मक मोड दिया जा सकता है !!

निर्मला कपिला said...

संगीता जी ने बिलकुल सही कहा है अच्छा सवाल ौठाया है। शुभकामनायें

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

एक डिटरजेंट पाउडर के प्रचार में देखा था की दाग अच्छे हैं.....
वही से कुछ शब्द चुराकर कहता हूँ की.....
सकारात्मक निगाहों से
दिखते है जो
लक्ष्य और तुलना
वो अच्छे हैं.......