अकेला चला था
यूँ तनहा चला था
मंजिल को आखिर
वो पाने चला था,
आँखों में सपने
दिल में उमंगें
लेकर वो राही
चलता चला था,
चालों में मस्ती
कदमों में थिरकन
मतवाला आखिर
वो बढ़ता चला था,
मैंने न देखा
तुने न देखा
लेकिन चला चल
चलता चला था,
मंजिल को आख़िर
वो पाने चला था,
अकेला चला था
यूँ तनहा चला था
मंजिल को आख़िर वो पाने.....!!
07 March, 2009
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3 comments:
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...मन को भाया
एक अच्छी कविता आपके कलम से निकली हैं....
कुछ पंक्तियाँ हैं जो विशेष रूप से प्रभावित कराती हैं.....
"मंजिल को आख़िर
वो पाने चला था,
अकेला चला था
यूँ तनहा चला था"
sahi likha hai in panktiyon me , zindagi me insan ko kuch pana ho khona ho sab kuch akele hi hota hai yeh to duniya ka bhram hai ki sab sath me hain , dukh aur sukh sab manushaya ko akele hi sahne padte hain aur sabki peeda alaga hoti hai, hum duniya me aye bhi to akele the fir duniya se umeed rakhene se koi fayada nahi rahi chal akela..
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